श्रील भक्तिसिद्धांत सरस्वती ठाकुर प्रभुपाद - संक्षिप्त जीवनी
श्रील भक्ति सिद्धान्त प्रणति | Bhaktisiddhanta Sarasvati Thakur Prabhupada
नम ॐ विष्णु-पादाय कृष्ण-प्रेष्ठाय भू-तले
श्रीमते भक्तिसिद्धान्त-सरस्वतीति नामिने
श्रील भक्तिसिद्धांत सरस्वती ठाकुर प्रभुपाद
श्रील भक्तिसिद्धांत सरस्वती का जन्म जगन्नाथ पुरी की पावन भूमि पर श्री चैतन्य महाप्रभु की शिष्य परंपरा में महान वैष्णव आचार्य श्रील भक्तिविनोद ठाकुर के घर हुआ था । श्रील भक्तिविनोद ठाकुर ने एक विश्वव्यापी आध्यात्मिक आंदोलन की कल्पना की थी तथा उसे पूरा करने के लिए पुत्र प्राप्ति की प्रार्थना की थी ।
6फरवरी 1874 को पवित्र तीर्थस्थान श्री जगन्नाथ पुरी मंदिर में अधीक्षक के रूप में सेवारत श्रील भक्तिविनोद ठाकुर के घर पर श्रील भक्तिसिद्धांत सरस्वती ठाकुर का जन्म हुआ । उन्हें बिमला प्रसाद नाम दिया गया । सात वर्ष की आयु में ही उन्होंने भगवद-गीता के 700 संस्कृत श्लोक कंठस्त कर लिए थे और उन श्लोकों पर अलंकृत टिप्पणियां दे सकते थे । अनेक पुस्तकों एवं गौड़ीय वैष्णव सिद्धांत पर अन्य लेखों के रचयिता श्रील भक्तिविनोद ठाकुर ने अपने पुत्र को मुद्रण (छपाई) तथा प्रूफ-शोधन में पारंगत होने का प्रशिक्षण दिया ।
पच्चीस वर्ष की आयु तक पहुँचने से पहले ही, बिमला प्रसाद ने सं स्कृत, गणित और खगोल/ज्योतिष-शास्त्र में एक विद्वान पंडित के रूप में ख्याति प्राप्त कर ली थी । उनका ज्योतिषीय आलेख, सूर्य-सिद्धांत प्रकाशित होने के उपरांत उनकी अपरिमित विद्वत्ता के कारण उन्हें सिद्धांत सरस्वती की उपाधि दी गयी ।
सन 1905 में श्रील भक्तिसिद्धांत सरस्वती ने अपने पिता के परामर्श पर श्रील गौरकिशोर दास बाबाजी से आध्यात्मिक दीक्षा स्वीकार की । यद्यपि श्रील गौरकिशोर दास बाबाजी निरक्षर थे परन्तु सम्पूर्ण क्षेत्र में उन्हें एक महान संत तथा वैष्णव आचार्य के रूप में पहचाना जाता था ।
यद्यपि सिद्धांत सरस्वती एक महान विद्वान एवं पंडित थे परंतु श्रील गौरकिशोर बाबाजी के सान्निध्य में वे नम्र एवं समर्पित भाव में प्रस्तुत होते थे । उनकी नम्रता एवं समर्पण के कारण बाबाजी ने सिद्धांत सरस्वती को अपना आशीर्वाद दिया और उनसे अनुग्रह कहा कि वे “बाकी सारे कार्यों का त्याग करके परम सत्य का प्रचार करें” । सन 1914 में श्रील भक्तिविनोद ठाकुर के अप्राकट्य (देहावसान) के उपरांत सिद्धांत सरस्वती ने अपने पिता द्वारा प्रकाशित पत्रिका “सज्जन-तोषणी” के संपादक का कार्यभार संभाला तथा गौड़ीय-वैष्णव साहित्य प्रकाशन हेतु भागवत-प्रेस की स्थापना की ।
सन 1918 में सिद्धांत सरस्वती ने आध्यात्मिक जीवन में संन्यास ग्रहण किया और तब उन्हें श्रील भक्तिसिद्धांत सरस्वती गोस्वामी महाराज की उपाधि मिली । सम्पूर्ण भारतवर्ष में गौड़ीय वैष्णव सिद्धांत के प्रचार हेतु उन्होंने चौंसठ गौड़ीय मठों का गठन किया । इस प्रचार आंदोलन का मुख्यालय श्री चैतन्य महाप्रभु के जन्मस्थान, श्रीधाम मायापुर में चैतन्य-गौड़ीय-मठ को बनाया गया ।
श्रील भक्तिसिद्धांत सरस्वती ने प्राचीन परंपराओं एवं रीति-रिवाजों को बीसवीं सदी के तकनिकी एवं सामाजिक परिस्थियों के अनुरूप समायोजित किया । इस प्रचार कार्य के लिए वे मुद्रण-यंत्र (छपाई मशीन) को सबसे अधिक प्रभावशाली समझते थे । वे स्वयं ही कई महत्वपूर्ण अनुवादों, टीकाओं तथा सिद्धांत आलेखों के रचयिता थे । इस गुरु-शिष्य परंपरा में वे प्रथम ऐसे गुरु थे जिन्होंने प्रचार हेतु अपने सन्यासी शिष्यों को पाश्चात्य-पहनावे तथा पैदल न चलकर आधुनिक मोटर-गाड़ियों में चलने की अनुमति दी ।
1930 तक श्रील भक्तिसिद्धांत सरस्वती अपने इस आंदोलन का प्रचार-प्रसार किया तथा भारतीय आध्यात्मिक-जगत में गौड़ीय वैष्णव सिद्धांत को अग्रणी शक्ति के रूप में पुनःस्थापित किया ।
1 जनवरी 1937 को श्रील भक्तिसिद्धांत सरस्वती ठाकुर प्रभुपाद इस भौतिक संसार से विदा लेकर भगवद्धाम चले गए ।
Srila Bhaktisiddhanta Saraswati Thakur Prabhupada
Jagannatha Puri, Orissa, India was the birthplace of Srila Bhaktisiddhanta Sarasvati Thakura Prabhupada, who was born in 1873. His father, Kedar Dutta Bhaktivinoda Thakura, was the city magistrate and the Jagannatha temple superintendent. The car once came to a halt in front of the family’s home during the Ratha yatra festival. Taking advantage of the situation, Srila Bhaktisiddhanta Sarasvati Thakura’s mother came out with the baby and placed him on Jagannatha’s Lotus Feet.
Bhaktisiddhanta Sarasvati Thakur Prabhupada was a Gaudiya Vaishnava preacher who travelled throughout India.
Srila Bhaktisiddhanta Sarasvati Thakura completed his education in Calcutta and studied Mathematics and Astronomy. He once stole a mango meant as an offering to the Deity when he was a child. When his father publicly shamed him, saying that he should not have taken the fruit meant for the Lord, the child took it very seriously and considered himself a terrible offender, pledging never to eat mango again in his life. Prior to his renunciation, he was known as Bimal Prasad Dutta. He was given the title Siddhanta Sarasvati for writing a book on astronomy called Surya Siddhanta. Srila Bhaktisiddhanta Sarasvati Thakura was his name when he took sannyasa and began preaching Lord Chaitanya’s gospel. In Calcutta, he was regarded as a great scholar, and the eminent Dr. Kalidas Nag referred to him as “a living encyclopedia.”
Thakura Bhaktivinoda prepared his son for preaching since childhood, and Srila Bhaktisiddhanta Sarasvati Thakura founded the Gaudiya Mission Institution after taking sannyasa. He established 64 Gaudiya Math branches across India. Sri Srimad Bhakti Dayit Madhav Goswami Maharaj, the Founder-Acharya of the Sri Chaitanya Gaudiya Math, had Srila Bhaktisiddhanta Sarasvati Thakura as his spiritual master. You can check Guru Parampara here.